मुझे कक्षा आठ में पढ़ी एक कविता याद आ रही
फैली खेतों में दूर तलक
मख़मल की कोमल हरियाली,
लिपटीं जिससे रवि की किरणें
चाँदी की सी उजली जाली !
तिनकों के हरे हरे तन पर
हिल हरित रुधिर है रहा झलक,
श्यामल भू तल पर झुका हुआ
नभ का चिर निर्मल नील फलक।
रोमांचित-सी लगती वसुधा
आयी जौ गेहूँ में बाली,
अरहर सनई की सोने की
किंकिणियाँ हैं शोभाशाली।
उड़ती भीनी तैलाक्त गन्ध,
फूली सरसों पीली-पीली,
लो, हरित धरा से झाँक रही
नीलम की कलि, तीसी नीली।
विश्वास मानिये पूरी कविता याद थी मुझे….ये उसका एक अंश मात्र है। एक और कविता मैने स्कूल में पढ़ी थी "ये धरती कितना देती है".
अब आते हैं उस बात पर की पंत जी को प्रकृति का सुकुमार कवि क्यों कहा जाता है?
पंत जी का जन्म अल्मोड़ा (उत्तराखंड) में हुआ था। उत्तराखंड की प्राकृतिक सुन्दरता बताने की जरूरत नहीं है। अब चूंकि उनका बचपन ही प्रकृति की गोद मे बीता तो निश्चित है कि उसका असर उनके काव्य पर भी पड़ना ही था। यह एकदम सत्य बात है कि हम जिस परिवेश में रहते हैं उसका अच्छा- बुरा प्रभाव हमपर पड़ता है ।तो हम कह सकते हैं कि प्रकृति से निकटता के कारण ही उनकी रचनाओं में प्राकृतिक सौंदर्य का अनुपम वर्णन देखने को मिलता है और यही कारण है कि उन्हें "प्रकृति का सुकुमार कवि" कहा जाता है।
पंत छायावाद के कवि थे। छायावादी कवियों की कल्पनाशीलता देखते ही बनती है। स्वयं पंत जी का भी यही मानना था कि वो प्रकृति के बहुत करीब रहे और प्रकृति को बैठकर घंटो देखा करते और यहीं से उनकी कविताओं ने प्रकृति के प्रति अनुराग उत्पन्न हुआ। दरअसल कविता हमारे मनोभावों का ही शब्दचित्र है ।
पंत प्रकृति के सौन्दर्य के सम्मुख नारी के रूप सौंदर्य को उतना महत्व देते नहीं दिखाई देते। आप स्वयं देखिये..
छोड़ द्रुमों की मृदु छाया
तोड़ प्रकृति से भी माया
बाले तेरे बाल – जाल में
उलझा दूं में कैसे लोचन ?
यहाँ वो नायिका से कहते हैं कि " मैं वृक्षों की इस मृदुल छाया और प्रकृति के मोह को छोड़कर तेरे केशों के जाल में अपनी आँखें कैसे उलझा लूं।"
परंतु ऐसा नहीं है कि प्रकृति के अलावा अन्य विषयों पर पंत जी ने नहीं लिखा है। आध्यात्म और देशप्रेम पर भी पंत की कलम उतनी प्रवाहमान है। वो चर्चा फिर कभी..
~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"