मंगलवार, 28 मार्च 2017

पिंजरे में तो केवल रट्टू टोटे रहते हैं..

रोने वालों का क्या है वो रोते रहते हैं
और समय के धन को अक्सर खोते रहते हैं।

दूर जिन्हें जाना होता वो जाग रहे होते
बात बनाने वाले केवल सोते रहते हैं।

छोटी -छोटी बातों से बिन मतलब डरते हो
अच्छे लोगों पर ये हमले होते रहते हैं।

जिनको केवल बात बनानी है वो सब
बे मतलब के बातों को ही ढोते रहते हैं।

बाज कभी भी क़ैद नही होता "दीपक"
पिंजरे में तो केवल रट्टू तोते रहते हैं।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"

रविवार, 19 मार्च 2017

हाईस्कूल के दिन

बोर्ड की परीक्षायें चल रही हैं, इस बीच मुझे अपनी बोर्ड की परीक्षाएं याद आ गईं। मुझे अच्छी तरह याद है जुलाई से दिसम्बर तक मैं मैथ्स और साइंस पढ़ाने वाले मास्टर साहब की खोज करता रहा। पता चला सोहगरा धाम पर एक टीचर हैं जो सीबीएसई बोर्ड  के बच्चों को पढ़ाते हैं। अब सोहगरा मेरे गाँव से था लगभग 12 किमी दूर।  दो बजे स्कूल से घर आते थे और ढाई बजे मैं और रजत घर से सायकिल लेकर निकल जाते थे सोहगरा। अच्छा एक बात कन्फर्म है की जब भी सायकिल से कहीं जाओ तो हवा हमेशा उलटी ही चलती है, जैसे हवा ने कसम खा ली हो की बेटा तुम्हारे बारह किमी  को चौबीस न बनायें तो कहना। जैसे तैसे सोहगरा पहुंचे , मास्टर साहब लुंगी - गंजी में बाहर आये , देखते ही अनिल कपूर की याद आ गयी ,मास्टर साहब बालों की चलती फिरती दूकान थे एकदम। पढ़ाना शुरू किये लगभग एक घण्टे तक पढ़ाये फिर कहा की तुमलोग इतनी दूर मत आया करो थकन हो जाएगी फिर सेल्फ स्टडी नहीं कर पाओगे। खैर हमने भी सोचा की सही कह रहे हैं के दुरी कुछ ज्यादा ही हो रहा है। उसके बाद हमें दिसम्बर में मिले नवीन सिंह मास्टर साहब। हमने कहा सर हमलोग आपसे कोचिंग पढ़ना चाहते है। सर बोले , समय नही है मेरे पास यूपी बोर्ड वालों का कई बैच है बिलकुल टाइम नही मिल पा रहा है। बहुत आग्रह पर इन्होंने कहा की ठीक है पाँच बजे सबेरे आना। बस दिसम्बर की उस कोहरे वाली सड़क पर साइकिल दौड़ाते हम लोग भी पाँच बजने से दस - पन्द्रह मिनट पहले ही पहुँच जाते थे। यहाँ आने पर पता चलता था की सर जी अभी सो रहे हैं, फिर हमलोग उन्हें उठाते। विवेक पानी चलाता और सरजी नहाते तबतक पौने छः हो जाता। फिर दस मिनट हमलोगों को ज्योमेट्री पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त होता था । और ठीक छः बजे सर जी दुर्गा मन्दिर के लिए निकल जाते थे क्योंकि वहाँ यूपी बोर्ड का एक बैच लग चुका होता था। लगभग पूरा दिसम्बर हमलोग रोज सुबह दस मिनट मैथ पढ़ते रहे। फिर एक दिन मास्टर साहब बोले मुझे लगा था तुमलोग भाग जाओगे लेकिन तुम लोग तो टिके हो रह गये चलो अब रोज दोपहर ढाई बजे से तीन बजे तक दुर्गा मन्दिर पर तुम लोगों का बैच चलेगा। उस दिन लगा की अब हाईस्कूल में हमारा उद्धार हो जाएगा।फिर रोजाना ढाई बजे हम लोग दुर्गा मन्दिर पहुँच जाते थे।कुछ लोग (जोड़े) वहां दो बजे ही पहुँच जाते थे और आधा घण्टा तक खूब बतियाते थे। इन जोड़ों के साथ एक सिंगल लड़का भी रहता था जो इन कपल्स के झगड़ों का समाधान करता था ।नहीं पहचान पाये ? अरे वही नोकिया 2690 वाला मित्र। कभी कभी सोचता हूँ अगर ये नोकिया 2690 वाला मित्र नहीं होता तो क्या हाइस्कूल के दिन इतने मजेदार होते? गारन्टी नहीं होते। मिलने का टाइम फिक्स कराना, फ़ोन करके झगड़े निपटाना, मिलने का फुलप्रूफ़ इंतज़ाम कराना ये सब यही तो करता था।
दुर्गा मन्दिर मिलने का एक अल्टीमेट पॉइंट था और सबसे ख़ास बात वहां मिलने नहीं पढ़ने जाते थे लोग ये सोचते थे। हांलाकि जो जोड़े वहाँ पढ़ते थे वो पढ़ने में काफी अच्छे थे और हाँ अब भी हैं। नवीन सर की एक खास बात ये थी की शेक्सपीयर का मर्सी और काईंडनेस वाला पैराग्राफ़ उनको कण्ठस्थ था, गणित पढाते पढ़ाते वो कब मर्चेंट ऑफ़ वेनिस और जूलियस शीजर पढ़ाने लगते पता ही नहीं चलता। अब तक जितने भी मैथ्स के टीचर मुझे मिले हैं उनमें सबसे अच्छे टीचर्स में से एक हैं नवीन सर। पढ़ाने का शानदार तरीका। हाँ बोर्ड का लिखा मिटने में पर्याप्त समय लेते थे, रच - रच कर बोर्ड साफ करते थे। हाईस्कूल का टाइम टेबल आ चूका था सेंटर था बेल्थरा में। रोज पेपर के एक दिन पहले जाते थे रात को हमलोग एक चर्च में रुकते थे । शानदार जगह था, पार्क, तालाब, तालाब में तैरते बत्तख़, तरह तरह के फूलों से सजा बागीचा । फिर सुबह एग्जाम देकर हम वापस घर आ जाते थे। आज न जाने क्यूँ ये सब अचानक याद आ गया, कहानियाँ और भी हैं पर अब फिर कभी।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"

गुरुवार, 2 मार्च 2017

विवेक और बसंत

बसन्त का आगमन सच कहें तो गाँवों में ही पता चलता है। सरसों और मटर के फूलों से सजकर जब खेत अपने ऊपर गर्व कर रहा होता है तब समझिये की बसन्त अपने चरमोत्कर्ष पर है। बसन्त को ऋतुराज ऐसे ही नहीं कहा गया है। बसन्त और फागुन तो मदमस्त करने वाला मौसम है ही ।आप सोचेंगे की ये पण्डित बसन्त और  फागुन पर निबन्ध क्यों लिख रहा है तो हम बता दें की ये कथा की भूमिका भर है। लॉन्ग लॉन्ग एगो की बात तो नहीं है पर हाँ सन् 2009 -10 की बात है तब हमारे एक मित्र हुआ करते थे ( अब भी हैं😊) जो थोड़े रसिक मिजाज हैं। उनकी रसिक मिजाजी का आलम ये की एक बार क्लास में कागज के एयरोप्लेन पर आई लव यू लिख के दिल का चित्र और उसको छेदते हुए तीर बना कर ऐसा उड़ाए की क्या कहें । पर एक गलती हो गयी उनका हवाईजहाज टारगेट से डिफ्लेक्ट हो कर सीधा गणित वाले सर जी के पास गिरा । अब सर जी हवाईजहाज की राइटिंग मिलाये तो हमारे मित्र गियर में आ गए फिर उनका जो अल्फ़ा - बीटा हुआ की क्या कहें।
नवीं क्लास में इनका दिल आ गया एक खूबसूरत इनकी भाषा में कहें तो कंटास लड़की पर , यही बसन्त -फागुन का मौसम अब ये जब भी उसे देखते इनका दिल बसन्तमय हो जाता और कल्पना में कहीं दूर तक निकल जाते थे। एक दिन सुबह ये स्कूल जल्दी पहुँच गए और संयोग की वो लड़की भी। अब इनका दिल गार्डन गार्डन हो गया और इसके पास वाली सीट पर बैठ गये ,थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले आज बहुत अच्छी लग रही हो । तो !!! लड़की बोली । मित्र बोले
अपना नम्बर दो ना ! लिखो 9415****** .अब तो इनको लगा की जैसे इन्हें वो तमाम चीजें मिल गयी जिनकी इन्होंने कल्पना की थी। बस शाम को फोन किये हेलो विवेक बोल रहे हैं , उधर से मीठी सी आवाज आई हैलो कल शाम को मालविया फिल्ड में मिलो न चार बजे तुमसे कुछ बात करनी है। अब इनकी ख़ुशी उस वक्त देखने लायक थी इनको लगा की क्या बात है लड़की सेट हो गयी। शाम चार बजे इत्र  वगैरह लगा के ये मालवीया फिल्ड में पहुंचे उधर वो लड़की भी आई और उसके साथ में था  एक लड़का जो मेरा और इनका भी मित्र था , बोला अरे विवेक कैसे हो ? अभी मेरे मित्र कुछ समझ  पाते उसके पहले ही इनकी दाहिनी कलाई पर एक स्पंज वाला राखी बंध चुका था और ये  आवाक रह गये। बाय कह के वो लड़की अपने बॉयफ्रेंड के साथ जा के फिल्ड में एक कोने में बैठ गयी और हमारे मित्र कलाई को देखते और कभी उस लड़की को। एक वो दिन था और एक आज का दिन उन्हें बसंत - फागुन फूटी आँख भी नहीं सुहाते और सरसो के फूल से तो इतनी नफरत है की मत पूछिये।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"