गुरुवार, 2 मार्च 2017

विवेक और बसंत

बसन्त का आगमन सच कहें तो गाँवों में ही पता चलता है। सरसों और मटर के फूलों से सजकर जब खेत अपने ऊपर गर्व कर रहा होता है तब समझिये की बसन्त अपने चरमोत्कर्ष पर है। बसन्त को ऋतुराज ऐसे ही नहीं कहा गया है। बसन्त और फागुन तो मदमस्त करने वाला मौसम है ही ।आप सोचेंगे की ये पण्डित बसन्त और  फागुन पर निबन्ध क्यों लिख रहा है तो हम बता दें की ये कथा की भूमिका भर है। लॉन्ग लॉन्ग एगो की बात तो नहीं है पर हाँ सन् 2009 -10 की बात है तब हमारे एक मित्र हुआ करते थे ( अब भी हैं😊) जो थोड़े रसिक मिजाज हैं। उनकी रसिक मिजाजी का आलम ये की एक बार क्लास में कागज के एयरोप्लेन पर आई लव यू लिख के दिल का चित्र और उसको छेदते हुए तीर बना कर ऐसा उड़ाए की क्या कहें । पर एक गलती हो गयी उनका हवाईजहाज टारगेट से डिफ्लेक्ट हो कर सीधा गणित वाले सर जी के पास गिरा । अब सर जी हवाईजहाज की राइटिंग मिलाये तो हमारे मित्र गियर में आ गए फिर उनका जो अल्फ़ा - बीटा हुआ की क्या कहें।
नवीं क्लास में इनका दिल आ गया एक खूबसूरत इनकी भाषा में कहें तो कंटास लड़की पर , यही बसन्त -फागुन का मौसम अब ये जब भी उसे देखते इनका दिल बसन्तमय हो जाता और कल्पना में कहीं दूर तक निकल जाते थे। एक दिन सुबह ये स्कूल जल्दी पहुँच गए और संयोग की वो लड़की भी। अब इनका दिल गार्डन गार्डन हो गया और इसके पास वाली सीट पर बैठ गये ,थोड़ी देर चुप रहे फिर बोले आज बहुत अच्छी लग रही हो । तो !!! लड़की बोली । मित्र बोले
अपना नम्बर दो ना ! लिखो 9415****** .अब तो इनको लगा की जैसे इन्हें वो तमाम चीजें मिल गयी जिनकी इन्होंने कल्पना की थी। बस शाम को फोन किये हेलो विवेक बोल रहे हैं , उधर से मीठी सी आवाज आई हैलो कल शाम को मालविया फिल्ड में मिलो न चार बजे तुमसे कुछ बात करनी है। अब इनकी ख़ुशी उस वक्त देखने लायक थी इनको लगा की क्या बात है लड़की सेट हो गयी। शाम चार बजे इत्र  वगैरह लगा के ये मालवीया फिल्ड में पहुंचे उधर वो लड़की भी आई और उसके साथ में था  एक लड़का जो मेरा और इनका भी मित्र था , बोला अरे विवेक कैसे हो ? अभी मेरे मित्र कुछ समझ  पाते उसके पहले ही इनकी दाहिनी कलाई पर एक स्पंज वाला राखी बंध चुका था और ये  आवाक रह गये। बाय कह के वो लड़की अपने बॉयफ्रेंड के साथ जा के फिल्ड में एक कोने में बैठ गयी और हमारे मित्र कलाई को देखते और कभी उस लड़की को। एक वो दिन था और एक आज का दिन उन्हें बसंत - फागुन फूटी आँख भी नहीं सुहाते और सरसो के फूल से तो इतनी नफरत है की मत पूछिये।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"

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