दो कदम और उसके बाद कदम विराम । इंजीनियरिंग छात्र के जिंदगी में दो मौका आता है खुशियों का एक जनवरी में और दूसरा जून में । इन दो महीनो में सबसे पहले हम अपनी मोटी मोटी किताबो का विधिपूर्वक विसर्जन करते हैं और ज़िन्दगी जीते हैं । हाँ भाई बाक़ी के महीनो में तो बस ज़िन्दगी "काटते" हैं। हॉस्टल वालों को ये सुकून रहता है की छोटी गंगा के नाम पर जो कढ़ी परोसा जाता है उससे निजात मिलेगी लेकिन जो रूम लेके रहते हैं उन्हें सबसे महान कार्य "बर्तन माँजने" से निज़ात के बारे में सोंचते ही कुछ कुछ होने लगता है। कहा जाता है आप जैसा सोचते हैं वैसा ही बन जाते हैं अगर ऐसा ही रहा तो हम सब तो बर्तन माँजने वाला बन जाएंगे । यही सोंचते रहते हैं की रूम पे जा के अभी बर्तन धोना है ये करना है वो करना है आदि इत्यादि। कल मैट्रोलोजी का पेपर दे के आ रहे थे तब तक राहुल से उनके "उन्होंने" पूछा पेपर कैसा हुआ? लड़का फट पड़ा। कहा बिलकुल तुम्हारे जैसा था मतलब समझ में ही नही आया की आखिर चाहता क्या है । जैसे तुम दिमाग खाती हो वैसे ही ....... सॉरी सॉरी । बस शाम को व्हाट्सऐप पर मैसेज आया हाऊ डेअर यू टॉक मी लाइक दैट इन फ्रंट ऑफ़ माय फ्रेंड्स .. ब्ला ब्ला ब्ला। बेचारा शाम से ही मेला सोना मेला बाबू कर रहा है।
इसी आशा के साथ की राहुल का बाबू मान जाए और कल का पेपर अच्छा हो कलम विराम।
~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें