है भले दुश्वार लेकिन कम से कम रस्ता तो है
यूँ दिखाई दे न दे पर ख्वाब में दिखता तो है।
जिसको तुमने ये कहा था लिखना पढ़ना छोड़ तो
शुक्र है वो आदमी छुप- छुप के ही लिखता तो है।
तुम सियासतदां हो फिर अनजान बनते हो मियाँ
इस गली में कोई भी हो आदमी बिकता तो है।
आँधियों में जब मशालें बुझ गईं चारो तरफ
टिमटिमाकर ही सही पर एक दिया जलता तो है।
रहगुज़र को धूप में इस बात से राहत मिली
शाख़ पर का एक पत्ता ही सही हिलता तो है।
~लोकेंद्र मणि मिश्र "दीपक"
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें