शुक्रवार, 29 दिसंबर 2017

अंधेरे हैं आखिर कभी तो मिटेंगे

गिरेंगे , उठेंगे औ मीलों चलेंगे
सफर के मुसाफ़िर कभी ना रुकेंगे।

यही सोचकर साथ चलते रहे हैं
नदी के किनारे कभी तो मिलेंगे

ये माना के तूफ़ां बहुत तेज है पर
ये आंधी ये तूफ़ां कभी तो थमेंगे।

जरा साथ बैठो हमारे भी कुछ पल
हम' अपनी कहेंगे तुम्हारी सुनेंगे।

जलेगा ये "दीपक" क़यामत की शब तक
अंधेरे हैं आखिर, कभी तो मिटेंगे।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"

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