रविवार, 11 सितंबर 2016

कोई शिकवा नहीं ज़माने से

कोई शिकवा नहीं जमाने से
प्यार बढ़ता है दूर जाने से।

बेवफा है वो, जानता था पर
बाज आया न दिल लगाने से।

रोग है तो दवा जरूरी है
मर्ज़ बढ़ता है और दबाने से।

अपनी परछाइयों से डरता हूँ
डरता हूँ पास उनके जाने से।

हाल इस दौर का कहें क्या अब
चोरियाँ हो रही है थाने से।

होगा मंज़र उजास का हर शूं
एक "दीपक" महज जलाने से।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक

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