पापा को समर्पित एक रचना
बचपन में जब जाते हैं तो आती है याद जमाने की
जिद करते थे पापा से जब कंधे पर हमें घुमाने की
बिन गुस्साये बिन देर किये कन्धे पर हमें बिठाते थे
हर गली बगीचे तक हमको घण्टों बिन थके घुमाते थे
ज्यों होता फल नारियल का
बाहर से वज्र सामान मगर
लेकिन शीतल जल से होता
है भरा हुआ भीतर
वैसे ही पूज्य पिताजी भी होते बाहर से कड़ा मगर
जलधार स्नेह का बहता है सर्वदा हृदय भीतर
बचपन के सभी तमन्नाओं को पूरा करते हैं पापा
अनुशासन देने खातिर घूरा भी करते है पापा
माँ अगर प्रेम की मूर्ति है तो करुणा के आगार पिता
माँ अगर दया की दात्री हैं तो देते सदा विचार पिता
हैं पिता वृक्ष वह बरगद का जिनकी छाया में बड़े हुए
हैं पिता सहारा जीवन का जिनके कारण हम खड़े हुए
घनघोर विपति को सह के भी आगे ही सदा बढ़ाया है
ऊँगली को थाम पिताजी ने चलना हमको सिखलाया है
हम कैसे भूल सकेंगे की अपना सारा सुख त्यागा है
बेटों की ख़ुशी तरक्की को ही केवल रब से माँगा है
सच में वह पुत्र अभागा है जो रखे पिता का मान नही
वह पुत्र न हो तो अच्छा है जिसको पितु पर अभिमान नहीं
हम सबके के जीवन का सुनलो आधार पिताजी है
जीवन जिस पर है टिका हुआ वह अमर विचार पिताजी हैं
पृथ्वी पर हैं भगवान् अगर तो माँ पापा ही हैं जानों
यह बात लिखी है ग्रंथों में इसको तुम सदा सत्य जानों
जीवन में शान्ति और सुख है तो है इनके ही चरणों में
राम -कृष्ण तक ने जीवन है जिया इन्ही के शरणों में
सुख और शांति के दीपक को घर में यदि हमें जलाना है
तो माता और पिताजी को जीवन में नही भुलाना है
जिस माता और पिता ने है मुझको लिखा निज हाथो से
उनका वर्णन कब हो सकता इन छोटी छोटी बातों से
अंततः विराम कलम को है यह छंद समर्पित चरणों में
दीपक करता सौ बार नमन हे पिता तुम्हारे चरणों में
©®लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
09169041691
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