रविवार, 28 फ़रवरी 2016

वो मुझको बुलाती है

मुझे ऐसा क्यों लगता है कि वो मुझको बुलाती है
वो जब भी सज संवर जाये बला की जुल्म ढाती है।

वो मुझसे दूर है लेकिन यूँ लगता पास है मेरे
लगे उसकी छुअन ही है हवा जब छू के जाती है

यूँ लगता है कि दिन में ही हुई है रात मावस की
वो लड़की जुल्फ को अपने हवा में जब उड़ाती है।

बिछुड़ने का उसे भी गम है ये मालूम  होता है
वो जब भी मुझसे मिलती है नजर अपनी चुराती है।

मेरे हर गीत ग़ज़लों पर है हक़ उसका सुनो "दीपक"
मेरी ग़ज़लें अमर होती है जब वो इनको गाती है।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
लख़नऊ
©® lokendradeepak.blogspot.com

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