रविवार, 29 मई 2016

प्यारा बचपन

कैसा है यह प्यारा बचपन
जग में सबसे न्यारा बचपन

कितनी भी बंदिशे लगा दो
कभी नही पर हारा बचपन

जब होते हैं बचपन में हम
तब लगता है कारा बचपन

और बड़े जब हो जाते हैं
याद आता है सारा बचपन

होकर बड़े सोचते हैं हम
लौटा दे , ऐ  यारा बचपन

कभी नहीं जीवन में "दीपक"
आता है  दोबारा  बचपन ।

~ लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"

बुधवार, 25 मई 2016

इंजीनियरिंग पार्ट 3

साइकिल तो सबको याद ही होगी अरे हाँ वही जिसे चलाना सीखने के लिए कई बार मुंह टूटा ,हाथ-पैर छिल गए। दोपहर में जब घर में सब सो जाते थे तो धीरे से सायकिल बाहर निकालते थे, क्योंकि इधर सायकिल की जरा भी आवाज हुई और उधर से आवाज आयी कहाँ बाबू? दोपहर में बाहर ना, चलो अंदर । उस साइकिल का अपना मजा था लेकिन तब पता नही था की एक दिन यही शब्द "साइकिल" सारा सुख चैन छीन लेगा  । जिस सायकिल का नाम सुनते ही बचपन में चेहरा खिल जाता था आज उसी नाम से बुखार लग जाता है।  इससे पहले की आप लोग पूछें मैं बताता हूँ । कभी नही सोचा था की मेरी प्यारी साइकिल कभी "कार्नोट", "रैंकाइन" और ब्रेटन जैसा भयानक हो जाएगी। कभी सोचा नही था की  मेरी प्यारी साइकिल का रिश्ता टरबाइन , कम्प्रेसर,फीड पंप और बॉयलर से जोड़ा जाएगा। वो तो भला हो Aditya Gautam सर का की हम इस सायकिल को थोडा बहुत समझ पाए।
पर हाय रे इंजीनियरिंग ये जो ना कराये । कभी  साइकिल को आइडियल करती है कभी एक्चुअल और तो और यहीं मन नही भरता इसका एक से एक लम्बे लम्बे सवाल खड़े करती है
1~ अगर आइडियल है तो प्रैक्टिकली इसका कोई मतलब नहीं।
2~और अगर प्रॅक्टिकल है तो वो तो हमारे सिलेबस में ही नही है।
करें तो करे क्या। इस तरह से इंजीनियरिंग एक साइकिल के दीवाने को साइकिल का दुश्मन बना देती है। वैसे इंजीनियरिंग के अलावा भी कई तरह की सायकिल है पर उसमे और इंजीनियरिंग के साइकिल में ठीक वही अंतर है जो नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी में है। खैर अब साइकिल का तो नाम ही हरि अनन्त हरि कथा  अनन्ता जैसा है । जितना लिखो जितना पढ़ो उतना ही बाकी रह जाता है। चलिए अब ब्रेटन साइकिल पढना है कल एप्लाइड थर्मोडायनमिक्स का एग्जाम जो है।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"

मुक्तक

है लज्जित चाँद और गुमसुम से बैठे हैं सितारे भी
न जाने क्यों तड़पती है मचलती हैं बहारें भी
छिपाओ ना तमन्ना और हसरत दिल के तुम अपने
सदा से हैं वही सपने  हमारे भी तुम्हारे भी।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"

सोमवार, 23 मई 2016

लेज़र एग्जाम

लेज़र ने है कर दिया सबको अब बेहाल
Amar Chand है पूछता मुझसे मेरा हाल।

टाइप लेज़र का पढ़ा रात रात भर जाग
याद हुआ फिर भी नहीं अब किताब दे त्याग।

Shobhit जी अब मानिए मेरी इतनी बात
पढ़ कर किसको क्या मिला सबका खाली हाथ।

Gaurav अब तुम भी सुनो लेज़र जाओ भूल
बहुत टेंसन है तुम्हे अब हो जाओ कूल ।

ताबिश ,राहुल , Krishna  बब्बर करो रिवीजन आज
मेहनत पर विश्वास रखो सब होंगे पुरे काज।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
#laser_exam
#end_semxams
#wecan

रविवार, 15 मई 2016

जय समाजवाद

एगो दिन उहो रहे जब हाइस्कूल की परीक्षा में पूरा मालवीया कॉलेज से Santosh Mishra भईया फर्स्ट आइल रहने आ दू जाना थर्ड रहे लोग आ बाकी सब फेल । आ आज ओही मालवीया कॉलेज से सब लईका फस्ट आइल बाने सन। आ आन्हर लोग के यूपी में विकास नइखे लउकत । अरे आँख चियार के देखs लोग  जवन लइका लइकनी किताब ना देखले रहने ह सन उहो पास हो गइने सन।  2017 विधानसभा चुनाव के स्लोगन बा #कहो दिल से अखिलेश फिर से। सब छात्र कहिहs सन काहे की 2018 में इंटर में फर्स्ट ले आवे के बा। शिक्षा के मामला में हमरा एगो फेर स्लोगन ईयाद आ गईल #पुरे_हुए_वादे_अब_हैं_नए_इरादे।  असल में इहे त ह समाजवाद सबके बराबरी के मौका मिले के चाही त जब सभे पास होइ तबे नु सबके मौका मिली। सुविधा शुल्क लाइए मनचाहा रिजल्ट पाइए। सबसे ख़ास बात ई सब मार्कशीट डिग्रीवाल से अटेस्ट भी ना करावे के पड़ी काहे की उ पहिलही से अटेस्टेड रही।बधाई जे जे पास भईल आ जे जे का लगभग सभे पासे बा
जय समाजवाद
जय अकलेस्स

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
lokendradeepak.blogspot.com

गुरुवार, 12 मई 2016

इंजीनियरिंग पार्ट 2

इंजीनियरिंग पार्ट 2

आज प्रेमचन्द का एक कथन याद आ रहा है "दुनिया में विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई भी विद्यालय आज तक नहीं खुला है". सही कहा था आपने विपत्ति अपने साथ अनुभवों की एक भारी भरकम गठरी लेकर आती है। विपत्ति को हमसे अधिक कौन जानेगा वो भी जब मई या दिसम्बर का महीना हो। विद्या कसम खा के कह रहे हैं ये जो दो महीना होते हैं न  बाकी के दसो महीने पर भारी पड़ते हैं। एन्ड सेमेस्टर एग्जाम का महीना है ये , पढ़ लिए तो पार नही तो इसी पार रह जाएंगे। ये दो महीने घनघोर विपत्ति के होते हैं। अचानक सोते -सोते नींद खुलती है तो याद आता है ब्रेटन साइकिल का न्यूमेरिकल , तब तक अचानक दिमाग में रोलिंग फोर्जिंग चलने लगता है। कसम  सॉरी विद्या कसम खा के कह रहे हैं मन करता है सब मोहमाया छोड़ के हिमालय पर चले जाएं।
इसी सब में फंसे रहते हैं तब तक व्हाट्सऐप मैसेज आता है। मैसेज आया है मैकेनिकल सेकण्ड इयर ग्रुप से HOD सर का मैसेज है कल से इंटरनल प्रैक्टिकल होंगे ।अटेंडेंस इज़ कम्पलसरी. लो एक और विपत्ति अब फ़ाइल किससे मांगे यहाँ तो बारी के बारी सब आम कोइलासी है। खैर बड़ी मेहनत के बाद पता चला की जो फर्स्ट बेंच पे चश्मा वाला लड़का बैठता है उसका फ़ाइल कंप्लीट है। अच्छा हर क्लास में    एक दो लड़के अच्छी टाइमिंग वाले होते हैं ।असाइनमेंट सबसे पहले देंगे,फ़ाइल सबसे पहले देंगे आदि आदि आदि। इनकी कहानी हरी अनन्त हरि कथा अनंता।
जैसे तैसे रात भर के जगे जगे कॉलेज पहुंचते  हैं तो पता चलता है प्रैक्टिकल नही लेक्चर्स होंगे। एक प्रोफेसर साहब हैं वो आएँगे और फलाँ विषय पर व्याख्यान देंगे। इस व्याख्यान की एक खासियत है रात की नींद दिन में पूरी हो जाती है। खैर आत्मा की शांति के लिए सभी लोग व्याख्यान का गुणगान करते हुए किसी तरह दिन काटते हैं। फिर भेजिए आप मैसेज घण्टा कोई नही आएगा।
ये जो इंजीनियरिंग है ये एक अजीब फील्ड है यहाँ आपको बताया जाएगा की इस फॉर्मूले से ये कैलकुलेट होगा । आप जब सब करना जान जाएंगे तब कहा जाएगा की ये ऐसा होता नही है आइडियल केस है। यार पहले बताये होते ।जब मैट्रोलोजी पढ़ते हैं तो लगता है अरे अकेले डिस्प्लेसमेंट नापने के लिए इतना मेथड है। एक से काम नही चल सकता था क्या? सबसे बड़ी बात है डिपार्टमेंट की हमारा तो डिपार्टमेंट ही है " डिपार्टमेंट ऑफ़ मैकेनिकल इंजीनियरिंग" बोले तो यांत्रिकी अभियंत्रण विभाग  यन्त्र को छोड़कर कुछ है ही नही ।ठीक एक फ्लोर नीचे जाइए एप्लाइड साइंस में आपको अच्छा फील होगा । अगर एक फ्लोर और नीचे गए तब याद आता है "यदि कहीं स्वर्ग है पृथ्वी पर तो ...." मन में आता है कहाँ हिमालय जाने की बात कर रहे थे यार जरा इस फ्लोर की शीतलता महसुस  करो रेफ्रिजरेशन के कांसेप्ट फेल हो जाएंगे।
लेकिन फिर वही चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात ।आना पड़ता है अपने फ्लोर पर यादों का गट्ठर और मन को मनाना पड़ता है , फिर याद आती है एक पंक्ति "यदि कहीं नरक है पृथ्वी पर...." 
चलो ये तो रोज का है अभी फ़ाइल भी लिखना है।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
©lokendradeepak.blogspot.com

बुधवार, 11 मई 2016

गज़ल

आप किस दर्द की दवा देंगे
आग को बस जरा हवा देंगे।

इनकी आदत है दर्द देने की
कौन कहता है ये दुआ देंगे।

वफ़ा की उम्मीद इनसे मत करना
ये जब भी देंगे बस दगा देंगे

सच को सच बोलने से डरते जो
तुमको लगता है, सच बता देंगे

ये अँधेरे भी कल नही होंगे
एक "दीपक"अगर जल देंगे

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
ग्राम भिण्डा मिश्र
पोस्ट भाटपार रानी
जिला देवरिया
उत्तर प्रदेश

मंगलवार, 10 मई 2016

लघुकथा

बगीचे में खेलते खेलते अचानक वो गिर गया। एक दूसरे लड़के ने उठाया और फिर दोनों खेलने लगे। यकायक शर्मा जी नज़र उस लड़के की और गयी जिसने उनके लड़के को उठाया था। बेटा तुम्हे पहले कभी नही देखा कहाँ रहते हो? हरिजन टोला ।इतना सुनना था की वर्मा जी आगबबूला हो गए , ऐं तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई हमारे बगीचे में आने की भाग नही तो टांग तोड़ दूंगा । आज के बाद दिखाई न देना इधर। ऐ बबुआ की अम्मा ले जाओ बबुआ को और गंगाजल से नहला दो । आके छू दिया एक हरामी । उधर बबुआ की अम्मा बबुआ को गंगाजल से नहला रही थी इधर वर्मा जी फेसबुक  पर स्टेटस अपडेट कर रहे थे. End caste discrimination to develop India.
~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
©lokendradeepak.blogspot.com

सोमवार, 9 मई 2016

लौकी की आत्मकथा

लौकी की आत्मकथा

पता है तुम्हे जब मुझे पहली बार वो बूढ़ा किसान कृषक बीज भण्डार से खरीद कर लाया था न तो मैं बहुत खुश हुई थी । मैं उस वक्त बीज थी , डिब्बे में बन्द पड़े पड़े उकता गयी थी मैं। अगली सुबह जब मुझे मेरे और साथियों के साथ उस भुरभुरी मिट्टी में बोया गया तो मुझे दर्द हुआ दबने के कारण लेकिन एक नए जीवन की आस में मैंने हँसते हंसते यह कष्ट स्वीकार किया । लगभग 3 -4 दिनों तक धरती के अंदर घुप अँधेरे में दबी दबी इंतजार करती रही अपने पुनर्जन्म का। चौथे दिन सुबह सूरज के किरणों के साथ मेरा भी जन्म हुआ । मुझे याद है वो बूढ़ा किसान और उसके आँखों      की ख़ुशी । लगभग दस दिनों के बाद मैं एक पौधे के रूप में आ गयी थी। दिनभर बिना किसी गर्मी सर्दी की चिंता किये वह बूढ़ा मेरे देख रेख में लगा रहा। कहीं कोई जानवर आ कर मुझे बर्बाद न कर दे इसलिए रात को टॉर्च लेकर वहीं खेत में मचान बनाकर  बैठता। जरा सी आहट पर चौकन्ना हो जाता।
हर आठ से दस दिनों के अंतराल पर वह मेरी सिंचाई करता था। गोबर के खाद से लेकर फॉस्फोरस और पोटाश तक कितनी मेहनत से इंतजाम करता था। कुछ दिनों बाद मुझमे फूल लगने लगे पर मेरा और बूढ़े बाबा का दुर्भाग्य मौजेक रोग हो गया मुझे (पत्तियों का विकास रुकना और फल भी छोटे हो जाते हैं) । उस किसान ने कई दवाओं का प्रयोग किया तब जाके मैं ठीक हुई। कर्ज ले ले कर खेती कर रहे उस किसान  की सारी उम्मीदें मेरे और मेरे साथियों पर टिकी थी। अब मैं जवान हो गयी थी। अपने रूप पर इठला रही थी मैं । जब कभी हवा मुझे स्पर्श करती मैं झूमने लगती। सच कहुँ तो अपना रूप देखकर मैं फूली न समाती थी हो भी क्यों न ?मैं थी ही उस लायक। अब वह समय आया जब मुझमे फल आने शुरू हुए। अपने बेटे की तरह  पाल रहा था मुझे वो किसान।  लगभग तीन  महीने के  बाद उस किसान ने एक एक कर मुझे तोडना शुरू किया दर्द भी हुआ और ख़ुशी भी। ख़ुशी इसलिए की बूढ़े बाबा का कर्ज उतर जाएगा । मैं तोड़कर बाजार में लायी गयी। मुझे और मेरे साथियों को सब्जी मण्डी में उतारा गया और हम नीचे पड़े रहे। कुछ देर बाद हम अलग अलग दुकानों पर चले गए। फिर तुम आये और पूछे भईया लौकी कैसे दिया ? पन्द्रह रूपये का एक -दुकानदार ने कहा।  तुमने मुझे उठाया और अपना एक नाख़ून गड़ा दिया शायद यह देखने के लिये की मैं ताज़ी हुँ या नही। मुझे याद है तुमसे पहले भी तीन चार लोग मुझे नाख़ून से काट चुके थे। मुझे भी दर्द होता था पर यही मेरी नियति है। तुम मुझे घर लेकर आये और बीच से काट दिया। मैं अपने जीवन के चरम कष्ट पर थी पर मेरा जीवन सार्थक हो रहा था इसीलिए तो जन्मी थी मैं। यही तो था मेरे जीवन का उद्देश्य। तुमने मेरा दो प्याजा बनाया था और खा कर तुम सन्तुष्ट हो गए। पर मेरा आधा हिस्सा यूँ ही पड़ा था टोकरी में लहूलुहान । तुमने अगले दो दिन तक घर पर खाना नही बनाया शायद बाहर से ही खा कर आते थे । मेरा दूसरा हिस्सा सूख चूका था । तुमने उसे उठाया और कूड़ेदान में दाल दिया। तुम्हे क्या तुमने सिर्फ पन्द्रह रूपये ही तो दिया थे मेरे लिए, जरा कभी वो बूढ़े बाबा मिलें तो उनसे पूछना मेरा महत्व । तुमने मेरा नही उनका अपमान किया है। उस किसान का अपमान किया है जिसने तीन महीने अपने  बेटे की तरह पाला था मुझे। तुम्हे जरा भी दुःख नही हुआ न। सच बताऊँ तुमने मुझे नही उस किसान के खून -पसीने को कूड़ेदान में डाला है।
अलविदा

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
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रविवार, 8 मई 2016

माँ

माँ को शब्दों में नही बाँधा जा सकता। माँ एक लफ़्ज नही एक संसार है । एक व्यक्ति नही एक व्यक्तित्व है। माँ प्रकृति है जो सिर्फ देना जानती है।

1
किसी आँगन में अम्मा की हँसी जब छूट जाती है।
तो खुशियों के नदी की बांध जैसे टूट जाती है।
दुखा कर दिल कभी आबाद रह पाया नहीं कोई
कि खुशियां दूर हो जाती जो अम्मा रूठ जाती है।

2
वो चूल्हे पर पतीले में चढ़ा कर दाल बैठी है
हमारे हर ग़मो को वो ख़ुशी में ढाल बैठी है
बुरी नज़रो हमारे पास आने से प्रथम सुन लो
हमारी माँ तुम्हारे वास्ते बन काल बैठी है।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
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शुक्रवार, 6 मई 2016

कबीर का "कबीर "होना

कबीर का कबीर होना

कबीर का नाम सुनते ही न जाने कितने दोहे याद आ जाते हैं। हम अचानक स्कूल के दिनों में चले जाते है जहां हमे " निंदक नियरे राखिये......." जबरदस्ती याद कराया जाता था। बहुतों को तो पल्ले ही नही पड़ता था की ये क्या  "निंदक नियरे राखिये?? ऐसा कैसे हो सकता है?? खैर छोड़िये उन बातो को वहाँ जाएंगे तो वहीं रह जाएंगे।  कबीर भारत की आत्मा का नाम है भारत की दार्शनिकता का प्रमाण है कबीर का एक एक दोहा।  लेकिन कबीर का कबीर होना भी आसान कहां था ।  साधु संतो और फकीरो के साथ रहते हुए भी उनके पाखण्डों का खण्डन जैसे जल में रह कर मगर से बैर करना था।
पाखण्डों और रूढ़ियों को खण्डन करते हुए उन्होंने कहा था

:- माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

कबीर के एक एक शब्द आज की पीढ़ी के लिए गुरुमन्त्र है जीवन जीने का सलीका कबीर से बेहतर कौन बता सकता है।
अंग्रेजी में एक कहावत है NO RISK NO GAIN. कबीर ने कहा है

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ|

जो प्रयास करते हैं वही पाते हैं गोताखोर जब गहरे समन्दर में जाता है तभी उसे मोती मिलता है, जो डूबने के डर से किनारे बैठा रह गया उसे कुछ नही मिलेगा।
आज के आपाधापी की जिंदगी में जब हमारे पास खुद के लिए भी समय नहीं है उस वक़्त कबीर याद आते हैं। जब हम उतावलेपन के आगे धैर्य भूलते जा रहे हैं तब कबीर कहते हैं

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

ये वो दौर है जब मैं बड़ा मैं बड़ा की होड़ लगी है। हम कहीं न कहीं छोटी बातो या चीजो को नजरअंदाज कर देते हैं इस दौर में कबीर की बाते हमे संभालती है, हमे चेतावनी देती हैं की सम्भल जाओ नहीं तो

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।

कबीर को पढ़ने, समझने और कबीर को समरस करने के बीच एक बहुत गहरी खाई है। और इस खाई को पाटने के लिए कबीर को पढ़ना काफी नही होगा कबीर को जानना पड़ेगा और कबीर को जीवन में उतारना पड़ेगा यानी की apply करना पड़ेगा।

कोई ऐसा क्षेत्र शायद ही हो जो कबीर के लेखन से अछूता रह गया हो

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥
आज जब हम एकता और अखण्डता की चर्चा करते हैं तो धार्मिक उन्माद और  कट्टरपन बीच में रोड़ा बनकर सामने आ जाता है । कबीर राम के भी थे और रहमान के भी। कबीर ने दोनों की कुरीतियो का खण्डन किया और प्रेम की प्रधानता जाहिर की

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी  मुए, मरम न कोउ जाना।

कबीर को न किसी धर्म या सम्प्रदाय से बैर थी न किसी अल्लाह या ईश्वर थे उन्हें सिर्फ पाखण्ड ,रूढ़ियों और कुरीतियो से बैर था ।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर.।

कबीर कल भो प्रासंगिक थे आज भी हैं और कल भी रहेंगे। कबीर का कबीर होना उनके त्याग ,समर्पण और दृढ़ता  का प्रतीक है।

मेरा मानना है

दौड़ की इस जिंदगी में बहुत मुश्किल धीर होना
है कहाँ आसान जग में पुनः एक कबीर होना।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
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गुरुवार, 5 मई 2016

मुक्तक

न कुर्सी से न तख़्तों से न तलवारो से डरते है
कलम लेकर सदा हम युद्ध गद्दारों से करते हैं।

कहाँ दम है तुम्हारी बात में या बाजुओ में ही
कलम के हम सिपाही है न हथियारों से लड़ते हैं।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
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