सोमवार, 9 मई 2016

लौकी की आत्मकथा

लौकी की आत्मकथा

पता है तुम्हे जब मुझे पहली बार वो बूढ़ा किसान कृषक बीज भण्डार से खरीद कर लाया था न तो मैं बहुत खुश हुई थी । मैं उस वक्त बीज थी , डिब्बे में बन्द पड़े पड़े उकता गयी थी मैं। अगली सुबह जब मुझे मेरे और साथियों के साथ उस भुरभुरी मिट्टी में बोया गया तो मुझे दर्द हुआ दबने के कारण लेकिन एक नए जीवन की आस में मैंने हँसते हंसते यह कष्ट स्वीकार किया । लगभग 3 -4 दिनों तक धरती के अंदर घुप अँधेरे में दबी दबी इंतजार करती रही अपने पुनर्जन्म का। चौथे दिन सुबह सूरज के किरणों के साथ मेरा भी जन्म हुआ । मुझे याद है वो बूढ़ा किसान और उसके आँखों      की ख़ुशी । लगभग दस दिनों के बाद मैं एक पौधे के रूप में आ गयी थी। दिनभर बिना किसी गर्मी सर्दी की चिंता किये वह बूढ़ा मेरे देख रेख में लगा रहा। कहीं कोई जानवर आ कर मुझे बर्बाद न कर दे इसलिए रात को टॉर्च लेकर वहीं खेत में मचान बनाकर  बैठता। जरा सी आहट पर चौकन्ना हो जाता।
हर आठ से दस दिनों के अंतराल पर वह मेरी सिंचाई करता था। गोबर के खाद से लेकर फॉस्फोरस और पोटाश तक कितनी मेहनत से इंतजाम करता था। कुछ दिनों बाद मुझमे फूल लगने लगे पर मेरा और बूढ़े बाबा का दुर्भाग्य मौजेक रोग हो गया मुझे (पत्तियों का विकास रुकना और फल भी छोटे हो जाते हैं) । उस किसान ने कई दवाओं का प्रयोग किया तब जाके मैं ठीक हुई। कर्ज ले ले कर खेती कर रहे उस किसान  की सारी उम्मीदें मेरे और मेरे साथियों पर टिकी थी। अब मैं जवान हो गयी थी। अपने रूप पर इठला रही थी मैं । जब कभी हवा मुझे स्पर्श करती मैं झूमने लगती। सच कहुँ तो अपना रूप देखकर मैं फूली न समाती थी हो भी क्यों न ?मैं थी ही उस लायक। अब वह समय आया जब मुझमे फल आने शुरू हुए। अपने बेटे की तरह  पाल रहा था मुझे वो किसान।  लगभग तीन  महीने के  बाद उस किसान ने एक एक कर मुझे तोडना शुरू किया दर्द भी हुआ और ख़ुशी भी। ख़ुशी इसलिए की बूढ़े बाबा का कर्ज उतर जाएगा । मैं तोड़कर बाजार में लायी गयी। मुझे और मेरे साथियों को सब्जी मण्डी में उतारा गया और हम नीचे पड़े रहे। कुछ देर बाद हम अलग अलग दुकानों पर चले गए। फिर तुम आये और पूछे भईया लौकी कैसे दिया ? पन्द्रह रूपये का एक -दुकानदार ने कहा।  तुमने मुझे उठाया और अपना एक नाख़ून गड़ा दिया शायद यह देखने के लिये की मैं ताज़ी हुँ या नही। मुझे याद है तुमसे पहले भी तीन चार लोग मुझे नाख़ून से काट चुके थे। मुझे भी दर्द होता था पर यही मेरी नियति है। तुम मुझे घर लेकर आये और बीच से काट दिया। मैं अपने जीवन के चरम कष्ट पर थी पर मेरा जीवन सार्थक हो रहा था इसीलिए तो जन्मी थी मैं। यही तो था मेरे जीवन का उद्देश्य। तुमने मेरा दो प्याजा बनाया था और खा कर तुम सन्तुष्ट हो गए। पर मेरा आधा हिस्सा यूँ ही पड़ा था टोकरी में लहूलुहान । तुमने अगले दो दिन तक घर पर खाना नही बनाया शायद बाहर से ही खा कर आते थे । मेरा दूसरा हिस्सा सूख चूका था । तुमने उसे उठाया और कूड़ेदान में दाल दिया। तुम्हे क्या तुमने सिर्फ पन्द्रह रूपये ही तो दिया थे मेरे लिए, जरा कभी वो बूढ़े बाबा मिलें तो उनसे पूछना मेरा महत्व । तुमने मेरा नही उनका अपमान किया है। उस किसान का अपमान किया है जिसने तीन महीने अपने  बेटे की तरह पाला था मुझे। तुम्हे जरा भी दुःख नही हुआ न। सच बताऊँ तुमने मुझे नही उस किसान के खून -पसीने को कूड़ेदान में डाला है।
अलविदा

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
©lokendradeepak.blogspot.com

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