शुक्रवार, 6 मई 2016

कबीर का "कबीर "होना

कबीर का कबीर होना

कबीर का नाम सुनते ही न जाने कितने दोहे याद आ जाते हैं। हम अचानक स्कूल के दिनों में चले जाते है जहां हमे " निंदक नियरे राखिये......." जबरदस्ती याद कराया जाता था। बहुतों को तो पल्ले ही नही पड़ता था की ये क्या  "निंदक नियरे राखिये?? ऐसा कैसे हो सकता है?? खैर छोड़िये उन बातो को वहाँ जाएंगे तो वहीं रह जाएंगे।  कबीर भारत की आत्मा का नाम है भारत की दार्शनिकता का प्रमाण है कबीर का एक एक दोहा।  लेकिन कबीर का कबीर होना भी आसान कहां था ।  साधु संतो और फकीरो के साथ रहते हुए भी उनके पाखण्डों का खण्डन जैसे जल में रह कर मगर से बैर करना था।
पाखण्डों और रूढ़ियों को खण्डन करते हुए उन्होंने कहा था

:- माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,
कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

कबीर के एक एक शब्द आज की पीढ़ी के लिए गुरुमन्त्र है जीवन जीने का सलीका कबीर से बेहतर कौन बता सकता है।
अंग्रेजी में एक कहावत है NO RISK NO GAIN. कबीर ने कहा है

जिन खोजा तिन पाइया, गहरे पानी पैठ
मैं बपुरा बूडन डरा, रहा किनारे बैठ|

जो प्रयास करते हैं वही पाते हैं गोताखोर जब गहरे समन्दर में जाता है तभी उसे मोती मिलता है, जो डूबने के डर से किनारे बैठा रह गया उसे कुछ नही मिलेगा।
आज के आपाधापी की जिंदगी में जब हमारे पास खुद के लिए भी समय नहीं है उस वक़्त कबीर याद आते हैं। जब हम उतावलेपन के आगे धैर्य भूलते जा रहे हैं तब कबीर कहते हैं

धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय,
माली सींचे सौ घड़ा, ॠतु आए फल होय।

ये वो दौर है जब मैं बड़ा मैं बड़ा की होड़ लगी है। हम कहीं न कहीं छोटी बातो या चीजो को नजरअंदाज कर देते हैं इस दौर में कबीर की बाते हमे संभालती है, हमे चेतावनी देती हैं की सम्भल जाओ नहीं तो

तिनका कबहुँ ना निन्दिये, जो पाँवन तर होय
कबहुँ उड़ी आँखिन पड़े, तो पीर घनेरी होय।

कबीर को पढ़ने, समझने और कबीर को समरस करने के बीच एक बहुत गहरी खाई है। और इस खाई को पाटने के लिए कबीर को पढ़ना काफी नही होगा कबीर को जानना पड़ेगा और कबीर को जीवन में उतारना पड़ेगा यानी की apply करना पड़ेगा।

कोई ऐसा क्षेत्र शायद ही हो जो कबीर के लेखन से अछूता रह गया हो

रात गंवाई सोय के, दिवस गंवाया खाय ।
हीरा जन्म अमोल था कौड़ी बदले जाय ॥
आज जब हम एकता और अखण्डता की चर्चा करते हैं तो धार्मिक उन्माद और  कट्टरपन बीच में रोड़ा बनकर सामने आ जाता है । कबीर राम के भी थे और रहमान के भी। कबीर ने दोनों की कुरीतियो का खण्डन किया और प्रेम की प्रधानता जाहिर की

हिन्दू कहें मोहि राम पियारा, तुर्क कहें रहमाना,
आपस में दोउ लड़ी-लड़ी  मुए, मरम न कोउ जाना।

कबीर को न किसी धर्म या सम्प्रदाय से बैर थी न किसी अल्लाह या ईश्वर थे उन्हें सिर्फ पाखण्ड ,रूढ़ियों और कुरीतियो से बैर था ।

कबीरा खड़ा बाज़ार में, मांगे सबकी खैर,
ना काहू से दोस्ती,न काहू से बैर.।

कबीर कल भो प्रासंगिक थे आज भी हैं और कल भी रहेंगे। कबीर का कबीर होना उनके त्याग ,समर्पण और दृढ़ता  का प्रतीक है।

मेरा मानना है

दौड़ की इस जिंदगी में बहुत मुश्किल धीर होना
है कहाँ आसान जग में पुनः एक कबीर होना।

~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
©lokendradeepak.blogspot.com

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