साइकिल तो सबको याद ही होगी अरे हाँ वही जिसे चलाना सीखने के लिए कई बार मुंह टूटा ,हाथ-पैर छिल गए। दोपहर में जब घर में सब सो जाते थे तो धीरे से सायकिल बाहर निकालते थे, क्योंकि इधर सायकिल की जरा भी आवाज हुई और उधर से आवाज आयी कहाँ बाबू? दोपहर में बाहर ना, चलो अंदर । उस साइकिल का अपना मजा था लेकिन तब पता नही था की एक दिन यही शब्द "साइकिल" सारा सुख चैन छीन लेगा । जिस सायकिल का नाम सुनते ही बचपन में चेहरा खिल जाता था आज उसी नाम से बुखार लग जाता है। इससे पहले की आप लोग पूछें मैं बताता हूँ । कभी नही सोचा था की मेरी प्यारी साइकिल कभी "कार्नोट", "रैंकाइन" और ब्रेटन जैसा भयानक हो जाएगी। कभी सोचा नही था की मेरी प्यारी साइकिल का रिश्ता टरबाइन , कम्प्रेसर,फीड पंप और बॉयलर से जोड़ा जाएगा। वो तो भला हो Aditya Gautam सर का की हम इस सायकिल को थोडा बहुत समझ पाए।
पर हाय रे इंजीनियरिंग ये जो ना कराये । कभी साइकिल को आइडियल करती है कभी एक्चुअल और तो और यहीं मन नही भरता इसका एक से एक लम्बे लम्बे सवाल खड़े करती है
1~ अगर आइडियल है तो प्रैक्टिकली इसका कोई मतलब नहीं।
2~और अगर प्रॅक्टिकल है तो वो तो हमारे सिलेबस में ही नही है।
करें तो करे क्या। इस तरह से इंजीनियरिंग एक साइकिल के दीवाने को साइकिल का दुश्मन बना देती है। वैसे इंजीनियरिंग के अलावा भी कई तरह की सायकिल है पर उसमे और इंजीनियरिंग के साइकिल में ठीक वही अंतर है जो नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी में है। खैर अब साइकिल का तो नाम ही हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता जैसा है । जितना लिखो जितना पढ़ो उतना ही बाकी रह जाता है। चलिए अब ब्रेटन साइकिल पढना है कल एप्लाइड थर्मोडायनमिक्स का एग्जाम जो है।
~लोकेन्द्र मणि मिश्र "दीपक"
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